Sunday, January 30, 2011

इंजीनियर की दीवानी

गली,मोहल्ले,गाँव शहर में,
रात दिन,सुबह शाम,भरी दोपहर में।
चिंता से पीड़ीत,कुंठा से कुंठित,
बेटी की शादी की बात है सोचती,
एक माँ मन ही मन बड़ा कचोटती।

कोई भला सा कामकाजी लड़का मिले,
तो खिल जाएँ बेटी की सूनी बागवानी,
शुरु हो उसकी भी इक नई कहानी,
वो तो थी बस इंजीनियर की दीवानी।

लम्बा हो,नाटा हो,हो कोई कद काठी,
दामाद को लगा लूँ,प्यार से अपनी छाती।

राम हो,श्याम हो,या हो भोला,
बस ओढ़े वो इंजीनियर का चोला,
सब उसको इंजीनियर बाबू बुलाए,
काश ऐसा लड़का मेरी बेटी को मिल जाएँ।

पा लूँगी एक साथ मै,
गँगा,यमुना का पानी,
हो जाएगी जब मेरी बेटी बेगानी,
वो तो थी बस इंजीनियर की दीवानी।

कई रिश्ते आये बड़े बड़ों के,
डाक्टर,व्यापारी और अफसरों के।

सबको था नकारा ये कह कर,
बेटी तो ब्याहेगी बस इंजीनियर के घर।

किमती जेवर,हीरे जवाहरात पायेगी,
बेटी मेरी विदेश घूमने जायेगी।

लोगों ने सोचा ये है उसकी नादानी,
दुविधा से बड़ी पीड़ित है,
ये बुढ़िया रानी।

पर वो तो थी बस इंजीनियर की दीवानी।

ढ़ुँढ़ते ढ़ुँढ़ते ऐसा लड़का,
कई साल यूही गए बीत,
उदास हो गई वो माँ बेचारी,
बेटी को जो ना मिला कोई मीत।

देखकर बेटी की भरी जवानी,
कहती बेटी तो हो गई है सयानी,
जल्दी थी अब उसको,
बेटी के हाथों में मेहंदी रचानी।

वो तो थी बस इंजीनियर की दीवानी।

हर रात उसके सपने में,
दामाद इंजीनियर था आता,
कहता माँ जी चिंता ना करो,
मेरा तो है तुमसे बड़ा पुराना नाता।

कुछ महीने डिग्री के है बाकी,
फिर मै बारात लेकर आऊँगा,
तुम्हारी बेटी को ब्याह कर,
इक रोज मै ले जाऊँगा।

खत्म होगी तब जिंदगी की मनमानी,
जब होगी इक इंजीनियर की मेहरबानी,
तब शान से सारे जहान से कहना.......

मै तो हूँ बस इंजीनियर की दीवानी।

Thursday, January 27, 2011

अर्जुन का धर्मसंकट

हे माधव!नैन मेरे तुमको देख नहीं पाते,
किन नैनों से देखु तुमको,
जो तुम मुझको दिख जाते।
विराट स्वरुप श्रीकृष्ण धरे,
अर्जुन का मोह मिटाने को,
सब बांधव बंधु कोई ना अपना,
गुढ़ तथ्य को समझाने को।

हे माधव!तुम तो असंख्य हो,
तुम अविचल,विराट,अनंत हो,
इन तुच्छ नैनों की क्या औकात,
जो देख सके तेरा भव्य रुप विराट।

सब युद्ध में मेरे अपने है,
कैसे मै इनसे लड़ पाऊँ,
गुरु का शिष्य धर्म भूल,
कैसे गुरु पर ही अस्त्र चलाऊँ?

बस भौतिक राज्य और यश वैभव,
इस महायुद्ध का है उदघोष,
ना चाहिए कुछ भी अब मुझको,
ना कर पाऊँगा अपनों से रोष।

मै निर्धन ही रह लूँगा,
पर महायुद्ध ना करुँगा।

अर्जुन बिल्कुल असहाय हो,
श्रीकृष्ण से कहते रहे,
माधव तो सब कुछ जानते,
बातों पे अर्जुन के हँसते रहे।

हे तात!तुम्हारी पीड़ा का,
ना कभी अंत ही होगा,
जब तक ना लड़ोगे अधिकार को,
तब तक ना तुम्हारा यश अमर होगा।

जब पांचाली का चिरहरण,
भरी सभा में सब ने देखा था,
सारे तुम्हारे अपने ही तो थे,
फिर क्यों ना इस अधर्म को रोका था।

सभा में भीष्म पीतामह भी थे,
गुरु द्रोण और अस्वथामा भी थे।

अपनी ही इज्जत की निलामी,
क्यों ना किसी ने टोका था।

तुम तो सब की सोचते हो,
कोई और ना धर्म निभाया है,
मर्दन करो इस धर्मसंकट का,
जो अधर्म के मार्ग पे लाया है।

ग्यारह बरस अज्ञातवास,
कौरवों द्वारा पांडवों का नाश,
लाह के महल की वो अंतिम रात।

हे तात!क्या भूल जाओगे,
इन अधर्म की सारी नीतियों को।

अधिकार को लड़ना धर्म है,
अपने ही जब हो कुमार्गी,
तब दुष्टों से लड़ना कैसा अधर्म है?

तुम अस्त्र उठाओं संहार करो,
गांडिव का अचूक वार करो।

कोई जगत में ना अपना है,
सारा मोह,माया इक सपना है।

हे तात!जागो अब देखो,
सारे शत्रु है सामने,
तुम इक वार कर के देखो,
अस्त्र शस्त्र को तत्पर सब थामने।

श्रीकृष्ण का गीता उपदेश,
जगाया अर्जुन का अंतर्द्वेष,
धनुष का बाण कालदूत सा,
महायुद्ध को रणभूमि में दिया प्रवेश।

भगवान का उपदेश ऊबारा था,
अर्जुन को धर्मसंकट से,
धर्म अब विजय को उद्धत हुआ,
कुनिती और अधर्म पे।

माधव का विराट स्वरुप,
अब दृश्य हुआ अर्जुन को,
वो धर्म की बाते जान कर,
युद्ध को तत्पर हुआ।

तब अर्जुन के धर्मसंकट का,
महायुद्ध पर असर हुआ।

Sunday, January 23, 2011

अर्धांगनी

अश्रुनयनों में भर लाती है,
ह्रदय प्रेम का कर के समावेश,
युग युग हो सुहाग अमर,
सिंदूर का कराती है माँग में प्रवेश।
पलक पावड़े राहों में बिछा के,
ईश्वर से करती है प्रार्थना,
प्रियतम मेरे युग युग जिये,
माँगती है मन से ये दुआ।

न्योछावर करती है अपना सम्पूर्ण जीवन,
चिर संरक्षित कौमार्यता यौवन।

पति परमेश्वर के हर्षोल्लास हेतु,
सति करती है यज्ञ का तिरस्कार,
स्वआहुति देकर तन की,
निभाती है अर्धांगनी का संस्कार।

पाषाण अहिल्या बन जाती है,
प्रियतम होते है जब रुष्ट,
सति अनुसुया के सतित्व से प्रेरित,
यमराज भी करते है अर्धांगनी को संतुष्ट।

उपवास,वर्त और पूजा,
पति ना हो मुझसे जुदा,
तेरे आँगन की तुलसी मै,
महकूँ तेरे घर में हर क्षण सदा।

ये तीज वर्त,ये प्यार तुम्हारा,
पावन गंगा सा रिश्ता हमारा।

फूलों की बगिया सजती रही,
दो फूल जो बगियाँ में खिले।

मेरी उम्र सारी तुमको लगे,
तन मेरा सुहागिन मरे,
प्रियतम मै रहूँ ना रहूँ कल,
तुम्हारा यश फैले सदा।

अस्तित्व तुम्हारा ही दिलाता है,
मेरी आत्मा को तन में जिंदा।

अर्धांगनी पत्नी तुम्हारी,
तेरे प्रेम की मतवाली है,
अब बाट ना जोह सकेगी,
अधीर,अकुलाई तेरी बावली है।

फलिभूत होगा हर वर्त,पूजा,
जब प्राण पखेड़ु छुटेंगे,
तेरी गोद में मिलेंगे सौ स्वर्गो का सुख,
स्व नैना से जो तुमको देख लेंगे।

सोलह सोमवारी,करवा चौथ,तीज,
का चाँद मुझे यूँ दृश्य होगा,
अंतिम क्षण हो जब श्वास विहीन,
प्रियतम मेरा जो समीप होगा।

Thursday, January 20, 2011

तेरा साथ चाहिए

दुनिया में सब रँग बेरंग,बस तेरा साथ चाहिए,
थाम लूँ खुद ही अपना दिल मै,बस तेरा हाथ चाहिए।
बना लूँ खुशियों का घर मै,थोड़ी सी खुशियाँ और पास चाहिए,
भूला दूँ हर गम एक पल में,बस दर्दभरी आखिरी रात चाहिए।

चेहरों के मेले में तेरा चेहरा यूँ भा गया,
तुझसे है शायद कई जन्मों का रिश्ता,
ये बात समझ में आ गया।

तेरे मिलते ही जन्नत को भूल गया,
हर अफसाना मेरा दिल्लगी बयाँ कर गया।

रुख की नयी गुलबहार भी तड़प के,
तुझमे सिमट गई,
मेरे प्यार की मँजिल चुपके से,
तुझसे लिपट गई।

दर्दे दिल मेरा दिल में ही दब गया,
नया प्यार और नया यार जो मुझे मिल गया।

आरजू की अँगड़ाईया इठलाती रही,
और मै तेरे नूर में सँवर गया।

महफिल का हर जश्न है वीराना,बस तेरा साथ चाहिए,
दुनिया के भीड़ में भी,मै हूँ अनजाना,
अजनबी तेरा हाथ चाहिए।

हटने वाली है दिन की चमक,सुहाना सा एक रात चाहिए,
तुझसे बात करता रहूँ,और तु सामने हो,
ऐसा खुशियों का बस एक सौगात चाहिए।

अनजान,अजनबी यूँ मिला मुझको,
बिन बताए ही वो मेरी जान बन गया।

कमबख्त इश्क भी क्या चीज है,
मेरे किस्से की अनूठी शान बन गया।

तु रहती है हर सोच में मेरे,
ये तो तुझे अब कहना पड़ा,
भूल गया हूँ खुद को,
जो तु मिली है,
हर दर्द अब हँस के सहना पड़ा।

साथी तेरी हर आहट में मुझे,खुशियों की नई बारात चाहिए,
चेहरे में तेरे खुदा की कोई,थोड़ी सी खुदगर्जी वाली बात चाहिए।

मेरे दिल में रहोगी न,दिल को ऐसा ही कोई,
प्यार भरा साथ चाहिए।

अँतिम साँस तक जो ना मिटे,वैसी ना कभी टुटने वाली गाँठ चाहिए।

Thursday, January 13, 2011

तो क्या करुँ

मै कवि कहलाने का अधिकारी हूँ या नहीं,
मुझे नहीं पता।
पर कविता खुद ही छलक जाती है,
तो क्या करुँ?
नहीं पता दयालु मै हूँ या नहीं,
पर आँखों से अस्क बरस जाते है,
तो क्या करुँ?

शब्दों का आकाश मेरे जेहन में बसा,
विचारों के बादल उनपे उमर जाते है,कैसे?
मुझे नहीं पता।

दोनों के टकराने से कविता की बारिश हो जाती है,
तो क्या करुँ?

जज्बातों का रेत मेरी सूनी मरुभूमि की जान है,
ख्वाबों को पन्नों में सजाना ही मेरा काम है।

कवि की दृष्टि कही भी पहुँच जाती है,कैसे?
मुझे नहीं पता।

थोड़ी मोड़ी मेरी भावनाएँ भी रँगीन हो जाती है,
तो क्या करुँ?

डगर में खड़ा चुपचाप सोचने लगता हूँ,
भीड़ में भी खुद को अकेला कहता हूँ।

विचारों की आँधी में बह जाता हूँ,कैसे?
मुझे नहीं पता।

राहों में चलते हुएँ ही कविता बना लेता हूँ,
तो क्या करुँ?

आदमी सा मस्तिष्क आम है,
ये लेखनी मेरी जान है।

भाव की स्याही उमर पड़ते है इनमें,कैसे?
मुझे नहीं पता।

लेखनी कुछ भी लिखवा देती है,
तो क्या करुँ?

आमोद,हर्ष और विषाद का तांडव,
बिन भावों के ये जीवन है बस शव।

जीवन में इक सच्चा इंसान बनूँ,कैसे?
मुझे नहीं पता।

कविता मुझे भगवान बना देती है,
तो क्या करुँ?

इंद्रधनुष से रँगों को चुरा लेता हूँ,
चाँद की चाँदनी को छुपा देता हूँ।

जो चाहता हूँ करता रहता हूँ,कैसे?
मुझे नहीं पता।

लोग इन चंचलताओं को कविता नाम देते है,
तो क्या करुँ?

शब्दों की नदी पल में बहा देता हूँ,
भावों को अँजूरी में भरता हूँ।

शब्दों का कल्पनाकाश बनाता हूँ,
विचारों का महल सजाता हूँ,कैसे?
मुझे नहीं पता।

कविता खुद ही मेरी लेखनी से बरसने लगती है,
तो क्या करुँ?

Thursday, January 6, 2011

जीवन पथ की राह

मै जा रहा हूँ अब वहाँ,
कब से था मुझको जिसका चाह।
मेरे मन के हर एक पोर से,
चंचल हवा के शोर से,
न जाने कैसा उद्गार हुआ,
मानो मै बैतरनी पार हुआ।

मै जाने किसमें खो गया,
उससा ही अब मै हो गया,
खुदा की रहमत का शुक्रगुजार हो गया।

यही थी मेरी अंतिम घड़ी,
जो मुझको ऐसे ही नहीं मिली।

मैने पा लिया था अपना परावँ,
अब बदल गया था मेरा हर एक मनोभाव।

खुद में ही अब मै मस्त सा,
सब अपनों से हुआ त्रस्त सा,
उस अनंत पथ पर चल पड़ा,
जैसे हूँ मै जिद पे अड़ा।

यादों की घड़ियाँ साथ थी,
मुझे जाने किसकी आश थी।

मेरे मन में कैसा द्वंद था,
दुष्टों में जैसे सत्संग सा,
निरुपम था वो,अविचल था वो,
निस्काम सा,निरुद्देश्य सा।

मेरे राह में वो था पड़ा,
मानो मेरे लिए ही वो हो खड़ा।

कितना निराला रुप था,
ठंडक में जैसे धूप सा,
मै उसका ही स्वरुप था,
क्या वो मेरा कोई भूत था।

जब राह में मै चला था,
तुझसे भी मै कभी मिला था।

उस शून्य के पथमार्ग पे,
कितने बद्किस्मत थे खड़े,
मै राही था वे सूल से,
मेरे राह में पत्थर मिले।

मुझको वे यूँ चूभ जाते थे,
मेरे दर्द से अतिसुख पाते थे।

इस्लाम के इंतकाम सा,
खुदा के किसी इम्तिहान सा,
मै बढ़ रहा था राह पे,
मुझको न थी अब खुद से नेह।

बस आँखों में मँजिल के निशा,
बयाँ करते थे मेरा सुखद आशियाँ।

वो राह कितना दुखभरा,
मेरी साँसों का दुश्मन बड़ा,
हर पल था मुझको जिसका चाह,
मैने पा लिया था वो मुकाम।

मेरी आत्मा पथ राही थी,
जीवन मेरा था एक परावँ,
सब रिश्ते नाते साथी थे,
जिनसे मिला मेरे मन को छावँ।

कितने युगों का था सफर,
मेरे सभी जन्मों का भँवर।

मेरी आत्मा मेरी पहचान थी,
शरीर तो वस्त्रों सी थी पड़ी।

हर बार ये मेरी आत्मा,
दे जाती थी ये भावना,

तु कौन है,तु कौन है?
इस प्रश्न पे क्यों मौन है।

तेरा न कोई अस्तित्व है,
न है किसी से वास्ता,
तु राही है बस चलता जा,
अपने वजूद से तु ना कतरा।

तेरे न कोई साथ है,
फिर क्यों तुझे विश्वास है,
माँ बाप मेरे पास है,
घर बार मेरा साथ है।

सब है मिथ्या वो जानता,
जिसने रचा है ये व्यथा,
उसने हमे जो दी है साँस,
फिर भी मेरे मन,तु क्यों है निराश।

जीवन का ये जो सत्य है,
वो ही अब मेरे समक्ष है।

मेरे मार्ग में,मेरे राह में,
सुख दुख के खिलौनों के मेले,
लगे हो जैसे हर घड़ी।

क्या रिश्ता है,क्या नाता है,
ये सब तो पल भर में मिट जाता है,
हर जन्म में नये रुप में,
ये आता है और जाता है।

हमको ये सबक दे जाता है,

तु प्रेम का,सौहाद्र का,
हर घड़ी के हर क्षण का,
ऊपयोग कर,यूँ ना बिता,
इस मनुष्य शरीर पर तु कर गुमाँ।

फिर भी ना तु ये भूल रे,
तु राही है बस चलता जा,
अपने वजूद से तु ना कतरा,
अपने आज से तु ना घबरा।

यही तेरा अब है परावँ,
जिसमे मिलेगा तेरे मन को छावँ।

मै पा गया अब वो जहाँ,
कब से था मुझको जिसका चाह.........।

मेरी आवाज में विडियो "जीवन पथ की राह" on YOUTUBE