Tuesday, March 29, 2011

अदृश्य तुम मेरे सदृश

अदृश्य तुम मेरे सदृश,
अंतर-नैनों से दिखती जो छवि,
स्वर्ग के द्वार का कोई दृश्य,
समक्ष मेरे तुम हर क्षण,हर पल,
रहते हो क्यों ऐसे अदृश्य?
कई बार हुआ एहसास मुझे,
तुम रहते मेरे पास सदा,
कुछ कमी थी मेरे जीवन में,
थे जो तुम मुझसे जुदा-जुदा!

आवाज दिया अपने मन में,
कई बार बुलाया तुमको,
जो मुझमे मेरे सदृश्य छुपा,
कैसे मिल पाता उनको!

खुशियों के पल में आनंद तू,
दुख में भी हृदय तक जो ले छू,
एकांत में भी मेरे विचार बन,
भीड़ में भी तन्हा सा होता था मन!

सारे अपने, सारे सपने,
सँवरते रहे,टूटते रहे,
तेरे लिए हे प्राण सदृश,
मेरे तन ने क्या-क्या न सहे!
कई बसंत देखे,कई पतझड़ झेले,
बढ़ते रहे तेरी चाह में अकेले!
ढूँढा  तुझको हर जगह वहाँ,
लोगों से सुना था जहाँ-जहाँ!

मंदिर भटका, मस्जिद गया,
चर्च,गुरुद्वारा है तेरा घर क्या?
मिला ना मुझे तू कही,
अदृश्य तू है या है नहीं!
कस्तूरी मृग के सदृश,
मेरे हृदय में ही था तू अदृश्य!
मेरे समक्ष पर असहाय थे अक्ष,
दर्शन तेरे ना कर पाये,
गाते रहे,कहते रहे,
कोई चमत्कृत संजीवनी मानो पाये!
श्वासप्राण से जीवन-प्राण दाता,
अदृश्य तू ही है मेरा विधाता,
अब ना कुछ समय गवाना है,
बस कैसे भी तुझे पाना है!
मेरे सदृश तू  भाव बन,
आत्मा का तुमको शत-शत नमन!
मेरे मन की अब है लगन,
मैने किया अदृश्य का चयन!

Thursday, March 24, 2011

तुम्हारी आँखों में खो गये है.....

तुम्हारी आँखों में खो गये है,
मेरे दिल के अरमान सारे,
कही डूब न जाऊँ इनमें,
कर दो तुम,मुझको किनारे।
पलकों पर तेरे रहने की तमन्ना,
होंठों पर टिकी इक चाहत,
अपने दिल के कोने में कही,
सुनता हूँ तेरे कदमों की आहट।

अब इक गुजारिश तुमसे है,
मुझको ना कभी तुम बिसराना,
तुम छोड़ अकेली दुनिया में,
नहीं दूर जमाने से जाना।

क्योंकि है तुमसे प्यार बहुत,
ये कैसे मै तुमको बतलाऊँ,
संगीत की देवी तेरी खातिर,
मै कैसे कोई गीत बनाऊँ?

हम तो खुद से ही है हारे,
गम भी तो लगते है प्यारे,

तेरी चौखट की आस तके,
मेरे ये नैन हुए मतवाले।

तुम्हारी आँखों में खो गये है,
मेरे दिल के अरमान सारे।

Tuesday, March 22, 2011

बस निकलते रह गए प्राण

बस निकलते रह गए प्राण।

 नियति ने जो समय दिखाया,
हर क्षण तो गिन-गिन के आया,
खुशियों के कुछ पल मैने पिरोये,
दुख के पल ने दिया मेरे मन को अवसान।
बस निकलते रह गए प्राण।

पहली किरण ने आशा जगायी,
इक नयी ताजगी मुझमे समायी,
आया जो रात फिर लौट कर,
चिंता की लौ मन ने जलायी।

बूझता रहा हर रात यूँही,
मेरे जीवन का वो मधुर मुस्कान।

बस निकलते रह गए प्राण।

इक वक्त था जब तुम साथ थी प्रिय,
धड़कन में धड़कती साँस थी प्रिय,
सोचा ना था आयेगा इक पल,
दूर हो जाओगी तुम मुझसे कल।

तुम जो गई तो फिर ऐसे गई,
तन से जुदा हो गई मेरी जान।

बस निकलते रह गए प्राण।

हर पग पे इक संघर्ष मिला,
अपनों ने दिया ये कैसा सिला,
बस फूल की ही चाहत थी,
पर दर्द ही शूल का क्यों खिला।

सींची थी बगिया बड़े जतन से जो,
हर फूल ने शूल सा किया अपमान।

बस निकलते रह गए प्राण।

इक गीत कब से उर में समाया,
गाता रहा सबको सुनाया,
स्वर और सुर का संगीत मेरा,
प्रकृति की हर दिशा में छाया।

भय का जो हुआ बस इक प्रलय-गान,
विच्छेदित हुआ मेरा प्रणय-गान।

बस निकलते रह गए प्राण।

समय की नाव पर बैठा निरंतर,
देखा तूने कितने मनवंतर,
परमात्मा तेरी शक्ति को,
महसूस किया मैने बारम्बार।
आयी जो आज वो रात मिलन की,
प्रियतम के मधु आलिंग्न,चुम्बन की,

क्यों छीन लिया बिना बताये,
इक पल में तन से मेरे प्राण।

बस निकलते रह गए प्राण।

Monday, March 21, 2011

मेरी इच्छा के बन दीप

आज मेरे प्रिय भाई का जन्मदिवस है....मै अपने छोटे भाई को सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ.....वो जिंदगी में हर मुकाम को प्राप्त करे और हर ऊँचाई को पाये...मेरी शुभकामनाएँ उसके साथ है......

मेरी इच्छा के बन दीप,
हर पल,हर क्षण तुम जलते रहो,
निशदिन प्रगति के पथ पर,
अनवरत तुम चलते रहो।
(शुभम शिवम)

इतनी शक्ति दे ईश्वर,
एक दिन जाओ दुनिया को जीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

सारी खुशीयाँ कदमों को चूमे,
जीवन में हर पल आनंद झूमे।

कभी भी ना तुम रहो उदास,
ईश्वर में रखो सदा विश्वास।

बुरे दिनों में तुम्हे राह दिखाए,
मेरी मुस्कुराहटों का हर गीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

आकांक्षाओं को मेरे दो नया स्वरुप,
आती जाती रहती है,
जीवन में छावँ धूप।

इक नया आसमां बनाओ,
इक नई धरती का ख्वाब सजाओ।

सूरज सा दमको क्षीतिज पर हर दिन,
बनो दुखियारों के तुम मीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

शाश्वत सत्य ज्ञान को सीखो,
विकास के इतिहास को लिखो,
महापुरुष सी छवि हो तुममे,
हो तेज,सत्य,बल और विज्ञान।

स्वर्णाक्षरों में हो अंकित जो,
प्रेम सुधा से मोहित हर प्रीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

मेरा बचपन,मेरी जवानी,
तुममे देखु अपनी बीती कहानी,
हर ख्वाब जो था मेरे जीवन में अधूरा,
तुम कर दो सब को पूरा पूरा।
संवेदना और भावना के मोती,
चुन लो सागर से भावों का सीप।
मेरी इच्छा के बन दीप।

जब हो मेरे जीवन का अवसान,
साँस थमे और निकलने को हो प्राण,
मुझमे आत्म रुप दीप तु जल,
मन के तम को तु दूर कर।

प्रज्जवलित मुझमे तु चिर काल से,
चिर काल तक निभाना हर रीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

Thursday, March 17, 2011

बेरंग रंगों की रंगोली....

बेरंग रंगों की रंगोली,
और मौन के धुन का गीत कोई,
कैसे बेरंग छटाओं में,
ढ़ुँढ़ु मै रंगों की होली।

तुम अपनी चुनर रंग लो,
रंगीन बना लो अब चोली,
मेरे रंगों में रंग नहीं,
बेरंग है जीवन की होली।

अब एक रंग ही साध लिया,
सब रंग है मैने बिसराया,
बस गुमशुम सी तेरी आहट पर,
मैने तो कई गीत बनाया।

अब इन बेरंग सी रलीयों में,
नादान ये मन कब तक भटके,
लेकर आओ तुम फिर भर कर,
अपनी अँजूरी में रंगों की झोली।

बहती है अब भी वैसी पवन,
जो दिल का दर्द समझती है,
धरती के प्रेम में मग्न गगन,
बूँदे बन कर तो बरसती है।

सुनकर ये प्रीत के गीत कही,
मन मेरा खेले है होली,
और स्वर की मधुर अलापों से,
निकले मधु भावों की बोली।

कभी देख श्याम को मीरा ने,
रँगवायी थी मन की चोली,
और बेसुध होकर नाच रही थी,
गोपी,ग्वालन की टोली।
सब संग जलाकर प्रेम धुनी,
बस श्याम का नाम पुकारते,
और श्याम बचा कर लाज द्रौपद के,
कष्ट से पल में उबारते।

बेरंग है जीवन मतवाला,
ना फिक्र किसी की रहती है,
कभी मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा,
हर आँगन में गंगा सी बहती है।

रंगों का बोझ है ये जीवन,
जिसमें जो रंगा वो पछताया,
पर मन की बेसुध बाँसुरी को,
तो बस रंग ही है भाया।

मै आज तुम्हारी गलियों में,
बेरंग सा बन कर भटकूँगा,
तुम देख कर मुझको,
बस कह देना,
ये है दिवानों की टोली।

आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.....

Tuesday, March 15, 2011

स्वर्ग के थे कितने करीब

स्वर्ग के थे कितने करीब,
संग था जब मेरा मीत,
गूँजा था कण-कण में संगीत,
इक प्रीत का गीत हुआ गुँजित,
स्वर मेरा गया जब तेरे मन को जीत।
स्वर्ग के थे कितने करीब।
माँ की आँचल में स्नेह निद्रा,
पाया मैने वो प्यार सदा,
काँधे पे पिता के था जो सुख,
भूल जाता था पल में जीवन का हर दुख।

हर्ष की मुस्कान ही थी,
जब मेरे अंतरमन के समीप।

स्वर्ग के थे कितने करीब।

बेपनाह रहमतों का सिलसिला,
जिंदगी का हर फूल पल में खिला,
किसमत मेरी हथेली को चूम,
हो गया कही जब शून्य में गुम।

चमका अब मेरे किसमत का सितारा,
मुक्कदर मेरा खुद से ही हारा,
बन गया तब कामयाबी ही,
मेरे रास्ते का सोया नसीब।

स्वर्ग के थे कितने करीब।

छवि दिखी मुझे मोहिनी सी अतिसुंदर,
दृग में कोलाहल मच गया,
स्वर्ण-सुधा की बारिश में तर,
इक नयी कहानी रच गया।
रस-रंग घुली मन में,तन में,
इक स्वाद जगी मुख में बड़ी लजीज।

स्वर्ग के थे कितने करीब।

विपन्नता में संतुष्ट जीवन,
समय ने बनाया इक कुंठित मन,
आकार ने मुझको रुप दिया,
सजा मेरा भी प्राणप्रिय तन।

श्वास था जो साथ हर क्षण,
मेहरबान था मुझपे मेरा रकीब।

स्वर्ग के थे कितने करीब।

काव्य रस में,
मन मेरे बस में,
दुनिया थी बस अब दो ही पग में,
इक पग जीवन का आधार,
दूजा था स्नेह और प्यार।

लेखनी में भरा मैने भाव स्याही,
कविता को अंतर आत्मा ने ब्याही।

व्यक्त हुआ अंतरंग बन मेरा,
कल्पना,विचारों का इक तरकीब।

स्वर्ग के थे कितने करीब।

Sunday, March 13, 2011

मै अकेला चल रहा हूँ

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ,
बस प्राण साथ है अब,
पथ पर अकेला बढ़ रहा हूँ।
है काफिला कितना बड़ा,
चल रहा है जैसे धरा,
मृतप्राय है सब अस्थिर से,
राह में अवरोध है जैसे खड़ा।

ना है फिक्र किसी बात की,
बेफिक्र सा मै चल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

हर बार मेरी यात्रा,
फिर से ठहराव पाती है,
जब जन्म लेकर मेरी आत्मा,
विरामता दिखाती है।

नये रिश्ते,नातें जुड़ते है,
नये माँ-बाप पाता हूँ,
तब फिर से मेरी आत्मा,
नये स्वरुप को निभाती है।

जीवन-मरण के जाल में,
मै हमेशा छल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

हर बार मै खो जाता हूँ,
बस आज को सच पाता हूँ,
माँ-बाप,घर,भाई-बहन में,
नया चमन बसाता हूँ।

पर अंत मेरा जब होता है,
फिर से मै जब सो जाता हूँ,
सब कुछ मै भूल जाता हूँ,
उस अनंत जलद में,
खुद को पाता हूँ।

हर बार विरह की तड़प से,
मै हमेशा गल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

सागर की गोद में पड़ा मै,
जब निंद से जाग जाता हूँ,
कल को ही अपना सच समझ,
माँ-बाप को पुकारता हूँ।

माँ मै अभी तो छोटा हूँ,
सागर तो है काफी बड़ा,
मुझे तैरना भी आता नहीं,
तन्हा मुझे क्यों है छोड़ा।
पापा मुझे बचा लो ना,
कही डुब ना जाउँ यहाँ।

इस बार फिर से डुब कर,
नई गोद में मै पल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

छोटी सी अपनी आँखों से,
अनजानों में अजनबी साँसों से,
फिर से मै यूँ घिर जाता हूँ,
नई गोद में खुद को पाता हूँ।

ममता वही है,मै वही हूँ,
बस लोग और चेहरे है जुदा,
सब है नये तो क्या हुआ,
मेरे साथ है मेरे साई खुदा।

विश्वास दिल में जगा कर,
नई रोशनी में चल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

शायद वही एक सत्य है,
हर पल जो मुझको दृश्य है,
हर जन्म की सारी भावना,
मेरा वजूद और ममत्व है।

खुशबु है वो हर फूल का,
रोशनी है वो हर नूर का,
मिथ्या है माँ-बाप,भाई,
अपना है तो बस साई।
साई तरु की छावँ में,
हर जन्म में मै फल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

सागर भी अब हो गया सीमित,
उसका भी हो गया है अंत,
ना छोड़ है,ना मोड़ है,
पा गया हूँ मै अब वैसा पंथ।

मँजिल पे आकर अब यहाँ,
मै रोशनी की गोद में,
मुरझा के फिर से खिल गया,
मेरा वजूद मानों हिल गया।

जीवन की ज्योति अब मेरी,
उस लाखों सूर्य से तेज में,
है खो गया,अब मिल गया,
उन साई चरणों के वेग में।

कब से अकेला चल रहा था,
अब साई चरणों में पल रहा हूँ।

अथाह,अनंत से जलद में,
मै अकेला चल रहा हूँ।

Thursday, March 10, 2011

भूतनी मेरे ख्वाबों में आकर

डरना मना है.....

सन्नाटे की खामोशियों में,
रात का अँधेरा कुछ कहता है,
पायल से निकलती घुँघरु की आवाज,
जब भयभीत मन को करता है।
जब रात के अँधेरे में,
सुनसान,अजनबी राहों पर,
कोई परछाई दिख जाता है,
जब साथ ना हो कोई घर में,
एकांतपन खुब सताता है।

जब रात का भयावह अँधेरा,
फिर चाँद से जीत जाता है,
आसमां से छत पे आता,
कोई साया भी दिख जाता है।

जब लाख जतन करने पर भी,
रोशनी कमरे का गुल हो जाता है,
जलती मोमबती भी हवा के वार से,
फूँके बिना ही बुझ जाता है।

तब डर-डर के भयभीत मन से,
बस आवाज ये आती है,
कोई भूतनी मेरे ख्वाबों में आकर,
मुझे निंद से जगाती है।

बड़ी भोर में वो भूतनी,
जाने कहा चली जाती है,
फिर रात जब होता है,
मेरे ख्वाबों में आ जाती है।

मन को बड़ा डराती है,
हर रात मुझे सताती है।

हवेली सूनी होती है,
तन्हाईया जब रोती है,
इक छोटी बच्ची घर में अकेली,
जब बिन माँ के ही सोती है।

कुते रात में जोर-जोर से रोते है,
सारे लोग अपने-अपने घर में जब सोते है,
लम्बी सी रात,रात-रात भर,
इक डरावनी कहानी बनाती है।

कोई भूतनी जब ख्वाबों में,
चुपके से मेरे आ जाती है।

तब डर-डर के भयभीत मन से,
बस आवाज ये आती है,
कोई भूतनी मेरे ख्वाबों में आकर,
मुझे निंद से जगाती है।

मन को बड़ा डराती है,
हर रात मुझे सताती है।

Tuesday, March 8, 2011

विचारों का घर

आज कुछ अलग अंदाज में लिखने की कोशिश की मैने।अपनी कल्पनाओं और विवशताओं को मूर्त स्वरुप दिया है मैने "विचारों के घर में"।
                                कैसा है मेरे "विचारों का घर"......?


मेरे विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
अब भी मेरी दो रचनायें,
वैसे ही टँगी हुई है।
दीमक लग रहे है उनपे,
अक्षर मीट रहे है धीरे धीरे,
धूमिल हो रहा है यादों का खजाना,
और गुमशुम से वे दोनों प्रतीक्षारत है।

 पहले कभी कभी मै और मेरी लेखनी,
विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी उन दो रचनाओं से मिल आते थे।

पूछते थे कैसे हो तुम,
क्या ये खामोशी अच्छी लगती तुम्हें।

और बिन कहे उनसे उन्ही के,
कुछ अक्षर चुरा लाते थे,
और मेरी डायरी के पन्नों में,
उकेर देते थे।

पर अब जब से मेरी लेखनी,
भूल गई है वो रास्ता,
जिससे मेरे विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी उन दो रचनाओं से मिलने जाया जाता था।

तब से बेअसर होकर,
न जाने क्यों बस ढ़ुँढ़ती है अब,
उन राहों को।

विचारों का घर न जाने कबसे,
वैसे ही बंद पड़ा है,
और कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी दो रचनायें न जाने किस हाल में है।

वो दो रचनायें,जिनमें एक रचना,
मेरी कल्पनाओं का आकाश समेटे हुए है,
और दुसरी मेरे विवशता का मूर्त स्वरुप।
अपने विचारों के घर से बेदखल,
मेरी लेखनी अब तो ना ही,
स्वच्छंदता से कल्पनाओं के आकाश में,
उड़ ही पाती है और न तो,
अपनी विवशता को शब्दों में गढ़ पाती।

अब तो बस कोरे कागजों पर,
निरर्थक अक्षरों को उकेरती रहती है।

चाह कर भी मै और मेरी लेखनी,
मेरे विचारों के घर के,
कोणे वाले उस कमरे में,
टँगी हुई मेरी उन दो रचनाओं से,
मिल नहीं पाती है।

और उन दो रचनाओं के गुम होने से,
मानों मेरा पूरा जीवन ही बेवजह सा गुजरता है अब।

Sunday, March 6, 2011

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती,
सूने मन आँगन का सूनापन,
फिर राह तेरी निहारती।
गुजरे हो मानों सुनहरे क्षण,
नैनों के अश्रु कण,यादों के मोती बन,
मंजर हो सारे बिल्कुल थमे,
आसमां में बस चाँद पे हो नजरे जमे।

खुशबु फिर वही पुरानी,
बिल्कुल जानी पहचानी,
रँग कर हवाओं के संग में,
बहारों को फिर से सँवारती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

अठखेलियों का सिलसिला,
मुझसे,तुम्हारा शिकवा गिला,
शरमा के फिर छुप जाना,
हँस के तुम्हारा गुस्साना।

खो गया कहा,अब ना मिला,
दिल फिर भी ना कुछ है भूला,
खुद में ही अब गा लेता है,
यादों में तुमको पा लेता है।

गीतों के सहारे ही तुम आकर,
प्यार के हर क्षण को दुलारती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

अकेला रात में सायों से करता,
दिल की जो बातें रह गयी थी अधूरी,
तुम ना आयी अब तक,
ना आओगी अब कभी यहाँ,
सोच कर दिल की हालत हो गयी थी बुरी।

अब प्राण से ना लगाव रहा,
लुट गया इक पल में प्यार का जहाँ,
प्रियतमा क्या तुम भी कही से,
कभी कभी मुझको पुकारती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

स्पर्श का स्मरण ही तुम्हारा,
जीवन का सबसे है प्यारा,
कही हुई तेरी हर बात,
मन के सूने नभ का है सितारा।
इक चाँद के बिन चाँदनी,
सा हाल दिल का हो गया,
क्यों आज की रात चाँद को देख,
आँख मेरा फिर रो गया।

ऐसा लगा कि अब भी कही तुम,
दो बूँद आँसू के बहाती।

चाँदनी है रात,फिर से तुम्हें पुकारती।

Thursday, March 3, 2011

साई कृपा

सौहार्द्र,प्रेम,स्नेह से,
उत्पन्न हुआ एक दिव्य पुंज,
क्या तेज थी,मुख ओज सी,
चारों दिशाओं में हुआ वो रम।
वो राम था या रहीम था,
जाने वो कैसा पीर था,
वो साई था,वो ही माई था,
दीन दुखियों का वो तकदीर था।

मुख ओज से यूँ दिव्य था,
हर जगह उसका ही गूँज था,
वो देव था,अवतार था,
सारे धर्मों का वो सार था।

भगवान की दैविकता दिखती थी,
अल्लाह की मुस्कुराहट थी छिपी,
इसा के जैसा सौम्य था,
खुदा हो के भी खुद से था जुदा।

उसका ना कोई जन्म था,
दिल माँ के जैसा मर्म था,
मदहोश थे सब सो गए,
उसमे न जाने क्यों खो गएँ?

शिरडी की पावन धरती पे,
एक सितारा टुट के आ गिरा,
रहता था वो,कहता था वो,
सब एक है,सब एक है,
सबका मालिक एक है।

परोपकार का,सद्भाव का,
हर एक के मन भाव का,
टुटे हुए हर छन्द का,
धर्मार्थ उत्पन्न जंग का।

वो युग्म था,वो जोड़ था,
संधि सेतु जैसा वो था खड़ा।

हम दीन हीन रुग्न थे,
वो सत्यजीत सत्संग था,
हम श्राप से यूँ तृण थे,
वरदान बन के था खड़ा।

हमें देखता,कुछ बोलता,
ऊपर की ओर था घुरता,
हँसता था वो,कहता था वो,
सब एक है,सब एक है,
सबका मालिक एक है।

हमने कहाँ ऐ देवता!
हमसे तेरा क्या वास्ता,
क्यों रोता है,खुश होता है,
दुख सुख से तु क्यूँ दो चार होता है?

नीलकंठ है,तु संत है,
हम सब का तु ही मंत्र है।

तेरे ध्यान में,तेरे प्यार में,
ये कैसा है चमत्कार प्रभु,
दुख मिटता है,मुख रटता है,
बस साई,श्रद्धा और सबूर।

कलियुग के इस घनघोर में,
पापिजगत की होड़ में,
तु है खड़ा बन भोर है,
तु ही सदा,तु ही श्रद्धा,
तु ही दुखों का चोर है।

जब भी कभी दुख में प्रभु,
कोई तुमको दिल में ढ़ुँढ़ता,
सत्,चित,आनंद के रुप तुम,
उसके दिल से ही पूछता,
क्या कष्ट है,क्यूँ त्रस्त है,
मेरे बच्चे तु क्यों आज रुस्ट है?

मै साथ हूँ,तेरे पास हूँ,
फिर जाने क्यों तु भयभीत है।

जब मन वियोग में तप कर,
कंचन सा हो जाता है,
तब साई कृपा की बारिश में,
वो भींग के अतिसुख पाता है।

साई मेरा,साई तेरा,साई सब का प्यारा,
बस मन मेरे रट ले इसको,
साई दुख हरेगा सारा।