मेरे आंगन में मुरझाते हुये तुलसी पौधे को समर्पित......
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
सुख के क्षण में प्राण वायु दान बन,
क्लेश में संताप से मरता रहा है।
अपने जड़ में वह छुपाये,
शांति और स्नेह धारा,
तीव्रतम वायु ने छीना,
तरु से जब पत्र सारा।
करुण पीड़ा भी सहा वो,
वृक्ष वट का बन बड़ा सा,
दे रहा बस नया जीवन,
हरित देव फिर है हारा।
मृत्यु की सीमा पे भी,
वह दौड़,दौड़,
जिंदगी की खातिर लड़ता रहा है।
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
मँजरी से लद गया था तन सुकोमल,
देव को होता था अर्पित जब तुलसी दल,
वरण जिसका खुद किये थे ईश विष्णु,
तरु वह खोता रहा है निश दिन स्व बल।
कर रहा था खुद में संचित,
पुण्य का प्रकाश हर क्षण,
सू्र्य का अवतार वो ही,
तम से अब डरता रहा है।
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।
तितलियों का क्रीड़ा साथी,
मेरे घर का बुजुर्ग था वो,
छोटे बच्चों का खिलौना,
बूढ़ों का हमदर्द था वो।
उसकी रंगत में है दिखती,
मेरी माँ की बस दुआयें,
अर्घ्य स्नेह का,नेह का,
हर चोट का मेरे उपाय।
जाने से उसके गया है,
वैद्य घर का एक पुराना,
पल में जो हर दर्द मेरा,
हर घड़ी हरता रहा है।
एक पौधा तुलसी का,
आँगन में मेरे।
प्रार्थना,आराधना करता रहा है।